Wednesday 29 June 2016

Ghazal; हमसाये की गिरी दीवार मेरा नुक़सान हो गया

हमसाये की गिरी दीवार मेरा नुक़सान हो गया
मोहल्ले दारी नीबाते नीबाते मैं परेशान हो गया

वो दुख देता रहा  दिन रात मैं चुपचाप सह गया
ऐसा कर के मैं दोस्तों में बड़ा महान हो गया

जिसे जो भी लगा अच्छा वो बिना पूछे ले गया
बिना पैसों के जो चली मैं वो दुकान हो गया

मेरा दिल भी अजीब है और खेलने वाले भी अजीब से
कभी महफ़िल की तरह सज़ा कभी शमशान हो गया

अपने अश्क़ की कहानी किस को बतावों जा के
कभी चुपचाप बह गया कभी तूफ़ान हो गया 

यह दिल मेरा था फिर भी मुझे ही दे गया धोखा
जिसे प्यार की समज नहीं उस पे क़ुर्बान हो गया

यह कैसा मेहमान था जो के फिर ना गया कभी 
अपने ही घर में "चाहत" क्यों अब मेहमान हो गया

Ghazal:ज़ख़्म गहरा है दर्द है ज़्यादा

ज़ख़्म गहरा है दर्द है ज़्यादा
प्यार उस का उम्मीद से आधा

ना दग़ाबाज़ में ना बेवफ़ा वो है
निभा सके फिर भी ना इक वादा

कैसे पूरी होती प्यार की क़समें रशमे 
ना मैं बन सका क्रिशन ना वो है राधा

ज़िद पे अड़ा तो कर जावों गा क़यामत
यूँ तो बन्दा हूँ मैं  बहुत सीधा साधा

तारे भी तोड़ के ले सकता है इंसान
ठान ले जो कर ले पक्का इरादा

मुस्किल ज़िन्दगी कर ली है उल्ज़ा के हमने
दोस्त जीना आसान है बहुत है साधा

बड़े आदमी बनते बनते छोटे हो गये इंसान
क़सम खाई झूठी तोड़ हर वादा

प्यार उस को ही मिलता है "चाहत"
दर्द सहने का जिस में हो माधा

Saturday 25 June 2016

ख़ुशी

तेरे आने की बहुत ख़ुशी है मुझे
तुझसे मिलने का थोड़ा डर भी तो है
अकेले  के मिलते तो और बात थी
साथ तेरे तेरा हमसफ़र भी तो है

वक़त से सब कुछ बदल जाता है
पर मुझे लगता है दिल बदलता नहीं
मैं नहीं मानता के तुम भी बदले हों
पर उड़ती उड़ती यह ख़बर भी तो है

तु ना बदले तो बहुत अच्छा होगा
बदल गए तो भी अच्छा है "चाहत"
जो तुझे देख के सदा ख़ुश होती थी
मेरे पास वो पहले सी नज़र भी तो है