Wednesday 29 June 2016

Ghazal; हमसाये की गिरी दीवार मेरा नुक़सान हो गया

हमसाये की गिरी दीवार मेरा नुक़सान हो गया
मोहल्ले दारी नीबाते नीबाते मैं परेशान हो गया

वो दुख देता रहा  दिन रात मैं चुपचाप सह गया
ऐसा कर के मैं दोस्तों में बड़ा महान हो गया

जिसे जो भी लगा अच्छा वो बिना पूछे ले गया
बिना पैसों के जो चली मैं वो दुकान हो गया

मेरा दिल भी अजीब है और खेलने वाले भी अजीब से
कभी महफ़िल की तरह सज़ा कभी शमशान हो गया

अपने अश्क़ की कहानी किस को बतावों जा के
कभी चुपचाप बह गया कभी तूफ़ान हो गया 

यह दिल मेरा था फिर भी मुझे ही दे गया धोखा
जिसे प्यार की समज नहीं उस पे क़ुर्बान हो गया

यह कैसा मेहमान था जो के फिर ना गया कभी 
अपने ही घर में "चाहत" क्यों अब मेहमान हो गया

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