Sunday 7 August 2016

ग़ज़ल: माना अपनी दोस्ती में कुछ शिकवे कुछ गिले हैं

माना अपनी दोस्ती में कुछ शिकवे कुछ गिले हैं
पर हम दोनो मानते है हम क़िस्मत से मिले हैं

अपने रिस्ते की सच्चाई हम से बेहतर कोई ना जाने
मगर रिस्तों में कुछ गड़बड़ी है लोगों में अटकलें हैं

अपनी दोस्ती की दूसरी कोई भी मिसाल यहाँ ना होगी
हम अलग अलग सोच के भी इक साँचे में डले है

अपनी दोस्ती में प्यार है संवाद है सम्मान है जान है
कभी दिल की तरह बुझे है कभी चिराग़ों से जले है

दोस्ती में क्या क्या किया है किस किस को यह बताएँ
आज सीसे की तरह टूटे है कल फूलों की तरह खिलें हैं

फूलों और बहारों की ही नहीं यह दोस्ती हमारी 
इक दूजे के ख़ातिर हम तो काँटों पे भी चले हैं

धूप पे हवा का झोंका सर्दी में लिहाफों की गरमी
अंधेरे जब मिले है तो हम बन के दिये जले हैं

हमें दो जिस्म इक जाँ कह के बुलाते है लोग अपने
जब के इक पेड़ के फल नहीं हम इक साथ ना फले है

बहुत मुश्किल है आसान नहीं है उमर बर की दोस्ती
जब अलग अलग जगह है जन्मे अलग आँचल में पले है

हर दोस्ती को देना पड़ता है इम्तिहान दोस्ती का
हल हम को भी करनी है थोड़ी जो मुस्किलें हैं

दोस्ती दुश्मनी शोरत जवानी हर सह का अंत है
वो बाग़ भी उज़रें गे जो अब की बहार में खिलें हैं

सब कुछ कर लिया है दोस्ती की ख़ातिर"चाहत"
इक हो चुके है कब से फिर भी क्यों फ़ासले है





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